सामाजिक विज्ञान संकाय में “अज्ञान के पर्दे” पर चलती M.Phil,P. hd प्रवेश प्रक्रिया की वैधता का विश्लेषणात्मक मौलिक परीक्षण (मूल्यात्मक प्रबंधन ) की चर्चा; पूरी फिल्म समाप्त हो जाने के बाद उसकी चर्चा करने, विश्लेषण करने का मजा ही कुछ और है। ‘यह बहुपक्षीय सोच का प्रतिफल भी हो सकता है अर्थात यह संभव है कि हर कोई अपने नजरिए से उस फिल्म का सारांश, कथानक व उद्देश्य समझे। यहां मैं कुछ ऐसा ही सारांश का एक नजरिया आपके सामने प्रस्तुत करूंगा।
संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्यों में अनुच्छेद 51 (A)-के उच्चादर्शों में संदेश है कि प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद, ज्ञानार्जन की उत्सुकता, सुधार की भावना, विवेकशील दृष्टिकोण का विकास तथा उत्कर्ष की सर्वश्रेष्ठता की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करें ।मैं तो यह चाहता हूं कि ‘निष्पक्षता’ हमें सर्वत्र मिले।
सितंबर 17, 2017 ‘जनसत्ता’ अखबार दिखाता है कि राष्ट्रीय संस्थान रैंकिंग फ्रेमवर्क ( NIRF) के अनुसार 2017 की रैंकिंग में जहां जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय छठवें(६), वही दिल्ली विश्वविद्यालय पंद्रहवें(१५), जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय बाइसवे (२२) स्थान पर थे। दिल्ली में स्थित ये प्रतिष्ठित संस्थान भारत के अलावा अन्य कई देशो के लिए शिक्षा के आकर्षण केंद्र रहे हैं, शुक्र कि ये तकनीकी संस्थान नहीं है। यह भारत में उच्च शिक्षा के मानक हैं, एक प्रोफ़ेसर के शब्दों में “हब “कहे जाते हैं।
भारत की बढ़ती जनसंख्या, रोजगार के स्थिर अवसर और युवाओं के सपने उन्हें कैरियर बनाने के लिए इन्हीं कुछ चंद संस्थानों के इर्द-गिर्द समेट हुए रखते हैं, पैसा कमाना एक अलग बात है, लेकिन भारत में उच्च शोध शिक्षा व प्रशिक्षण में युवाओं की रूचि को खींचना बहुत कठिन है। हर कोई टीचर तो बनना चाहता है, लेकिन प्रोफ़ेसर नहीं। इसलिए कि इसमें धैर्य, एकाग्रता तथा गहन अध्ययन की लंबी संतोषजनक अवधि चाहिए। लेकिन कुछ ही युवा इसको अपना (क्रेज) पागलपन चुनते हैं, मुझे हक है कि मैं उनके इस कैरियर चुनाव का समर्थन करूं । क्योंकि उच्च शोधों से ही राष्ट्र की नीतियों में गुणवत्ता देखी जाती है और विकास तथा आर्थिक वृद्धि तय होती है। हमारी राजधानी में स्थित ये विश्वविद्यालय इतनी लोकप्रियता के बाद भी देश में इतनी आरोही क्रम में रैंक वरीयता लाते हैं दुख होता है। इस दुख के पीछे यह कारण नहीं कि यह तकनीकी नहीं है, बल्कि कुछ अन्य कारण है जो इन्हें केंद्रीय राष्ट्रीय महत्व के संस्थान होते हुए भी इतनी पिछड़ी हुई वरीयता दिलाते हैं, और वह कारण है- उच्च शिक्षण प्रणाली, शोध में दोष पूर्ण, पक्षपात व विचारधारात्मक कारण।
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में प्रशासनिक तथा न्यायिक हस्तक्षेप के बाद इस वर्ष शोधो में प्रवेश रोके गए (विशेषता: सामाजिक विज्ञान विषय हेतु ), जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय ने हाल ही में शोध प्रवेश हेतु आवेदन मांगे हैं, इस कालक्रमिक हडबड़ी में दिल्ली विश्वविद्यालय ही एकमात्र विकल्प था। इसलिए दिल्ली विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान संकाय के अंतर्गत प्रभाग राजनीति विज्ञान विभाग के साथ-साथ, अल्परूप में सहयोगी, प्रौढ़ शिक्षा सत्त विस्तार विभाग तथा इतिहास, अफ्रीका विभाग के तथाकथित “टैलेंट” की चर्चा हम समझेंगे।
शोध परीक्षा के घटक
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विभागीय परीक्षण स्तर
हम जानते हैं कि कॉलेज में संबंधित विषय, उच्च शिक्षा में एक विषय संकाय से संबंध हो जाता है। जैसे स्नातक स्तर पर हमने राजनीति विज्ञान एक विषय पढ़ा, इसका स्रोत, निर्देशन हमें राजनीति विज्ञान विभाग से आता है, जिसमें बड़े-बड़े प्रोफ़ेसर इस का संचालन करते हैं ।विभाग में एक विभागाध्यक्ष होता है, वह विभागाध्यक्ष परीक्षा संयोजक (convener), m.phil संयोजक, परीक्षा जांच संयोजक, सेमिनार संयोजक , लाइब्रेरी व्यवस्था संयोजक के सहयोग से अपना कार्यकाल पूरा करता है। इस संयोजक मंडल में कई प्रोफ़ेसर व असिस्टेंट प्रोफेसर होते हैं, जो बदलते रहते हैं। हर वर्ष संयोजक अपने अपने नजरिए से परीक्षा व्यवस्थाओं का संचालन करते हैं। यही वह स्तिथि है जब एक प्रोफेसर अपनी “शक्ति प्रदर्शन” से नहीं चूकता। प्रश्न पत्र पद्धति तथा जांच का कार्य भार उसकी “पदस्थिति” से कम, उसकी “इच्छा” से ज्यादा होता है, वह अपने समकक्षों में कुछ पथ प्रदर्शन तथा बेहतरीन निर्देशन की होड़ जीतना चाहता है, हालांकि कुछ संयोजक आपसी सहमति से कार्य करें, यह अपवाद ही होगा ।
M.Phil, P. hd हेतु आवेदन ये प्रोफ़ेसर अपने शोध क्षेत्र से संबंधित ही मांगते हैं, विकल्प परीक्षा, लिखित व मौखिक परीक्षा के उत्तीर्ण होने के बाद यह अवसर आता है। धारणा है कि हर प्रोफ़ेसर एक उत्तम शोधार्थी का चयन करना चाहता है इस “उत्तम” शब्द के पीछे ही सारी “विवाद की जड़” उपलब्ध है।
छात्र विषयक स्तर, शोध इच्छुक छात्र, परास्नातक डिग्री में 55% अंकों की “रहस्यमयीं ज्ञान का प्रमाण पत्र” लेकर आवेदन करता है। उसकी निम्न मंशा हो सकती हैं। उदाहरण स्वरुप राजनीति विज्ञान विभाग में –
1. वह राजनीतिक विज्ञान के सारे उपविषयों में महारत हासिल कर ले।
2. वह किसी रूचि विषय को चुन कर उसका विशेषज्ञ साबित हो।
3. उसका शोध प्रस्ताव(proposal) अत्यंत गूढ व रुचिकर हो।
4. वह किसी प्रोफ़ेसर को अपना भाग्य निर्माता मान ले।
5. वह अपनी संबंधी राजनीतिक शक्ति, रिश्ते नाते की कहावत, किसी पार्टी के नाम पर लॉबिग पर ले।
6. वह किसी की खास विचारधारा से अपना स्वर मिलाकर उनका अनुचर बन जाए ।
7. शोधार्थी में “आकर्षक शारीरिक बनावट” के” टैलेंट” का उपयोग।
8. अंतिम, वह वास्तव में “शोध की गंभीरता” हेतु प्रवेश को एक लक्ष्य माने।
मध्यस्थता संबंध स्तर:
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दरअसल यह स्तर उपरोक्त दोनों स्तरों के आपसी क्रिया प्रतिक्रिया के फलस्वरुप देखने को मिलता है, जैसे –
1. शिक्षक पढ़ाता है, छात्र अपनी रचनात्मकता से प्रश्न पूछता है, विषय में रुचि दिखाता है, शिक्षक अपनी छत्रछाया में उसे बाकी छात्रों से अलग कर अपने कक्ष में “रूचि” को शांत करने का अवसर देता है ।
2. छात्र पढ़ता है, उसे शिक्षक के पढाने का तरीका, रचनात्मकता, व ज्ञान तथा समझ की व्यापकता का अंदेशा होते ही वह उनको सर्वस्व मान उनके कक्ष के “आसपास का पौधा” बन जाता है ।
3. सामाजिक मानसिकता से तैयार कुछ छात्र किसी विशेष विचारधारा वाले प्रोफेसर का चयन करते हैं, उसके अनुचर बनते हैं, तथा अन्य प्रोफ़ेसर की तुलनात्मक आलोचना में पसंदीदा प्रोफ़ेसर को सलामी देते रहते हैं।
4. कुछ छात्र-छात्राएँ बहुत ही अच्छे दिखने की प्रतिस्पर्धा कर अपना क्षेत्र सुरक्षित करने की कोशिश करते हैं ,वह रोज तीन बार hi, bye, नमस्ते से लेकर दंडवत प्रणाम, चाय-पानी की सेवा, बैग उठाना, रूम खोलना तथा विशेष मौकों पर तोहफे, कलाकृतियाँ आदि से रिझाना नहीं भूलते। यहां तक कि कुछ छात्र खुद को असिस्टेंट प्रोफेसर मानकर उनका कक्ष नियंत्रण करते हैं, सेमिनार में उनके आगे पीछे होते हैं, उनके हर आदेश को वह अपना “शोध अध्ययन” का हिस्सा समझते हैं ।
5. आकर्षक व्यक्तित्व भला किसे बुरा लगता है? व्यक्तित्व चाहे पढ़ाई का हो या सुंदर छरहरी काया, सुंदर मॉडर्न ड्रेस से सज्जित शोधार्थी या फिर फर्राटा बोलने वाली अंग्रेजी अंदाज ही क्यों ना हो? याद दिला दें- संकाय के कुछ प्रोफ़ेसर इसी “गुणवत्ता पूर्ण शोध” के पीछे विवादों में हैं।
6. व्यक्तिगत संबंध जिन्हें समाज की “गलत चेतना” ना समझ पाती हो।
सामाजिक निर्माण सोच स्तर
संविधान कहता है, किसी व्यक्ति के साथ भाषा, जाति, वर्ग, क्षेत्र के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। इस भेदभाव को मापने का यंत्र अभी तक प्रायोगिक रुप में नहीं उतरा है, हमारे पास सूचना का अधिकार ही विकल्प है।।
सूचना के अधिकार से हम यह पता लगा सकते हैं कि कितने छात्रों ने कितने अंक किस प्रणाली से प्राप्त किए। परीक्षा की अंक गणितीय जांच करा सकते हैं।
लेकिन –
– क्या “पारदर्शिता का यह सिद्धांत “रूपी यंत्र हमें बता सकता है जिस प्रोफ़ेसर के लिए एक-एक पल कीमती होता है ,वह अपने केबिन में किसी विशेष के साथ गुणवत्ता पूर्ण समय बिता रहा होता है और वह शोध चयन में अपना स्थान प्राप्त कर लेता /लेती है ?
– क्या यह सूचना का अधिकार हमें बता सकता है कि किसी प्रोफ़ेसर ने अपने अंतर्गत कर रहे mphil, p.hd के छात्रों को यह निर्देश दिया हो कि वह अमुक छात्र-छात्रा की इतनी अच्छी मदद करें, कि उसका उसका चयन हो जाए?
– क्या यह अधिकार हमें बता सकता है उन छिपे राजों को जो “किसी प्रोफ़ेसर द्वारा, आने वाले अनिवार्य प्रश्नों की स्पष्ट सूचना तथा उनका हल रुपरेखा पहले से ही छात्रों को प्राप्त हो”?
– क्या यह अधिकार हमें बता सकता है कि प्रोफ़ेसर की विचारधाराआे के गुट किस तरह संयोजक कार्यभार मिलने पर शेर की चाल चलते हैं ,वह निरंकुश हो जाते हैं, एक प्रोफ़ेसर के शब्दों में “डॉन “कहे जाते हैं ?
– क्या यह अधिकार बता सकता है कि उन छात्र छात्र-छात्राएं ने कितनी चाय/चापलूसी ही होगी जो “चयन में नाम “की मौजूदगी दे रहे हैं ?
– क्या यह अधिकार बता सकता है कि, क्या पता विभागीय पैनल का उद्देश्य किसी खास वर्ग, भाषा या जेंडर के चयन से प्रेरित हो?
आपको याद दिला दें कि इस देश में सकारात्मक अभिकर्मक जैसे आरक्षण तथा पदोन्नति के प्रति कितनी गंदी मानसिकता है यह एक समावेशन समाज की धारणा ही प्रतीत नहीं होती और इधर समाज में जो महिलाओं, दलितों के साथ बहिष्कृत घटनाएं होती है, उनका इन तर्क शील प्राणियों पर जूँ तक नहीं रेंगती। माफ कीजिए यह हमारा मुद्दा नहीं था ।
परीक्षा जांच स्तर
आपने कई बार अपने परिणामों में देखा होगा कि, आपका पेपर बहुत अच्छा गया लेकिन अंक कम आए ।कई बार ऐसा होता है कि परीक्षा अच्छी नहीं हुई फिर भी तब बहुत अच्छे अंक आए। इसके तार तो हमारी आधारभूत तथा माध्यमिक शिक्षा से भी जुड़े हैं, “सबको पास कर दो” नीति, “कुछ भी लिख दो- बनाकर पास हो जाओगे”, “उत्तरों का दोहराव” रणनीति तथा “अंक बाँटे जाने “की प्रक्रिया का महिमा मंडन बिषय ही महान है ।शायद इस एम फिल मैं भी वही हुआ, जो परीक्षार्थी नाखुश थेे, बाहर रोए थे, साक्षात्कार में नकारा थे (सब नहीं) वह चयनित हो गए ।अब आप कहेंगे कि उनका उत्तर प्रोफ़ेसर को अच्छा लगा होगा, मैं एक प्रश्न पूछता हूं कि गंभीर छात्रों का आत्मविश्वास फालतू था? या फिर गंभीर छात्र होना भी एक विवाद है। कट ऑफ इतनी गिराई गई कि उसमें पसंदीदा छात्रों के नाम आ पाए। जो छात्र खुद कहते थे कि मेरे 10- 12 प्रश्न ही ठीक हैं, नकारात्मक अंक होने के बाद भी वह लिखित परीक्षा में प्रवेश पाते हैं, ताज्जुव की बात है? और लिखित परीक्षा का राज तो शायद फिल्म निर्देशक भी ना बता पाएं हम आपके बस की बात कहां।
हां! बहुत से चयनित छात्रों से पता चला कि, यार! प्रश्न पता नहीं कहां से थे, जो कुछ भी उसे संबंधित याद था, पेज भर आए। अब शायद आप समझदार हैं कि शोधार्थी भी परीक्षा हेतु याद भी करता है, पेज भी भरता है, और प्रश्न पत्र से सहमत भी नहीं होता तथा साक्षात्कार के लिए चयनित हो जाता है।
अब बात करते हैं साक्षात्कार प्रक्रिया की। विशेषज्ञों की माने तो साक्षात्कार गहन अध्ययन, विषय की समझ तथा व्यक्तिगत आत्मविश्वास हेतु किया जाता है। लेकिन, यहां 25 सीटों हेतु केवल 69 शोधार्थी बुलाए गए, यानि तीन गुने से भी कम, जो किसी संस्थान के नियम के विरुद्ध है ।साक्षात्कार देर शुरु होने से लेकर देर रात तक चला, कुछ छात्र 5-7 मिनट में ही निपटा दिए गए और अगले दिन भी यही हाल। जो शोधार्थी साक्षात्कार के बाद आत्मविश्वास से बाहर आता है, वह आज चयन से बाहर है। है ना रहस्य? यहां तक भी देखा गया कि कुछ विशेष छात्र /छात्राएँ विशेष प्रोफ़ेसर के लिए बेकरार दिखे और हम कह दे कि निष्पक्ष है सब कुछ।
बवंडर रहस्य
समुंदर में जल एक गोलाकार स्थिति, गहराई तक जाकर बनाता है। ना तो उसकी उत्पत्ति और ना ही उसकी समाप्ति का कोई छोर मिलता है । यही हाल हम इस प्रतिष्ठित संस्थान में देख रहे हैं, आपको लगता होगा कि “गेंहू में घुन” तो पिसता ही है। आपको लगता होगा कि, इतना बड़ा संस्थान पर कोई भी जांच बैठ सकती है तो ऐसा कैसे संभव है? आप सूचना का अधिकार से संतुष्ट हो सकते हैं लेकिन फिर वही मुद्दा “जो योग्य थे वो क्यों ना आ सके”?
हालाँकि मैं फिर एक विवादित मुद्दे को छेड़ रहा हूं कि आखिर “योग्य” कौन होता है ? हम कैसे जाने की फलां योग्य है ? क्योंकि आजकल कोई छात्र अच्छा लगता है, कोई बोलता अच्छा है, तो कोई सोचता अच्छा है, सबके अपने-अपने योग्यता के मानक हो सकते हैं। इस मानक को तय भी नहीं कर सकते कि वही “योग्य” है। लेकिन इसमें हम प्रदर्शन तथा रायशुमारी कि एकजुटता से कुछ अंदेशा लगा सकते हैं। मुझे याद है, “जब स्कूल में टीचर किसी बच्चे को कहते थे कि बेटा /बेटी तुम बड़े होकर जरूर कुछ महान काम करोगे”। लेकिन अब याेग्य होना दरअसल “गले की फाँस” बन गया है, यही है “बवंडर का रहस्य”।
इसी रहस्य का फायदा विभाग के प्रोफ़ेसर उठाते हैं, क्योंकि वह तीव्र बुद्धि तथा विभिन्न सरकारों से भली-भांति परिचित हैं ।उन्हें पता है कि , उन्हें कहां पकड़ा जा सकता है? इसीलिए वह बहुत “व्यक्तिगत” होते हैं। अपने कई तरह के मसूंबो (शारीरिक, भविष्य, प्रसिद्धि तथा मानसिकता हेतु दल ) को वह इसी तरह भरण पोषण करते हैं। हालाँकि बहुत से प्रोफ़ेसर बहुत तर्कशील होते हैं, वे बहुत मौलिक सोच के होते हैं, जो शिक्षा, छात्र तथा जीवन के उद्देश्यों के रिश्ते को पवित्रता में हमेशा पिरोये रखते हैं, उन को मेरा प्रणाम है।
समाकलन
मित्रों! जब कोई मेहनत करे, मेहनत से अंक लाए, जिसका स्वप्न ही समाज में व्याप्त बहुत सी “दुविधाओं का कारण” जानना हो ,तो उसको यह अधिकार भी है कि वह शोधार्थी चुना जाए। एक तो देश में प्रतिष्ठित संस्थान गिने चुने हैं, और उनमें भी ऐसा कृत्य व बवंडर रहस्य देखने को मिले तो, सोचो हम और हमारा देश किस ओर जा रहे हैं।
कोई रोज लाइब्रेरी जाए, दिनभर पढ़े, मुद्दों को लेकर उसमें समझ हो, लेकिन वह किसी प्रोफ़ेसर की चापलूसी, विचारधारा की जी हजूरी ना करें तो कैसे साबित होगी निष्पक्षता। हम राष्ट्र के विकास में सहयोग देकर फिर सच्चे राष्ट्रवादी कैसे बनाएंगे?
प्रोढ शिक्षा विभाग
सामाजिक विज्ञान संकाय के इस विभाग ने अपनी निर्णायक m.Phil सूची में ,नीचे यह अंडरलाइन किया था कि जो छात्र m.Phil में हैं, वही ph.d भी करेंगे। देखो कितना निष्पक्ष आदेश है? मतलब बाहर से कोई छात्र पीएचडी के लिए आवेदन नहीं कर सकता, कितनी भेदपूर्ण नीति है यह। हालाँकि सूचना के अधिकार में जांच भेजी गई है, तब तक “अज्ञान का पर्दा” भी वैध हो जाएगा एवं समाज तथा छात्र निरंतर ढर्रे वाली प्रक्रिया में चल रहे होंगेे।
इतिहास विभाग
मैं इसे ज्यादा परिचित नहीं, परंतु कुछ मित्र बताते हैं कि वहां “विशिष्ट वर्गीय सिद्धांत के अल्प तंत्र का लोहा नियम” मौजूद है, यहां कोई साधारण छात्र, हिंदी का छात्र शोध का सपना साकार नहीं कर पाता।
अफ्रीका विभाग
माफ कीजिए लेकिन मुझे यह एक निरंकुश शासक की सत्ता से ज्यादा कुछ नहीं लगता। संभव है शोध का स्तर भी केंद्रीय प्रवृत्ति से तय होता होगा।
राजनीति विज्ञान विभाग
वैसे तो बहुत चर्चा ऊपर की ही जा चुकी है, लेकिन एक बात स्पष्ट है कि ph.d प्रवेश परीक्षा केवल दिखावा है ।इस मामले में मुझे अज्ञात सूत्रों से इतना ही सूचना प्राप्त है कि सीट पहले से ही निर्धारित होती है, लेकिन मैं या मेरे सूत्र गलत भी हो सकते हैं।
निष्कर्ष
“पाश” कहते हैं. कि “जिंदगी में कुछ भी हो जाए, लेकिन सपना नहीं मरना चाहिए”। मैं तो देश -विदेश के उन छात्रों के साथ हूं, जो भेदभाव के शिकार होकर अपने सपनों के साथ, जीवन को भी पंगु बना लेते हैं। दोस्तों मेरा उद्देश्य यहां किसी विभाग, प्रोफ़ेसर, संकाय, विश्वविद्यालय को दोषी ठहराना नहीं है। मैं तो गर्व करना चाहता हूं अपने विभाग, विश्वविद्यालय पर। इसमें बहुत अच्छे प्रोफ़ेसर हैं, ज्ञान के स्रोत है ।लेकिन बहुत से प्रोफ़ेसर नेे वही रुढ़िवादी, शिकारी मानसिकता नहीं छोड़ी जो साम्राज्यवाद विशिष्ट वर्ग से प्रभावित हैं ।
मैं यहां कोई निष्कर्ष नहीं देना चाहता, सब समझदार है। ना ही मैं शिक्षा सुधार जिम्मा लेना चाहता हूं, मैं तो बस “प्रक्रियाओं की निष्पक्षता” चाहता हूं, ताकि कोई सपना न टूटे। हमारे संस्थानों की चर्चा का मजाक ना बने । मुझे मेरे विस्तृत विश्लेषण में आप गलत भी समझ सकते हैं, आपको पूरा अधिकार है। लेकिन “अनुभव बोलता” है, ऐसा संदेश मुझे मेरे कुछ सीनियर्स, ph.d वाले छात्रों, कुछ असिस्टेंट टीचरों से जुड़े हुए अनुभव पर आधारित है।
लेखक, “शिव हरी” राजनीति विज्ञान, दिल्ली विश्वविद्यालय (२०१५-१७). आलेख में लेखक ने निजी विचार व्यक्त किये हैं।